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क्या आयशा की मौत के लिए सिर्फ आरिफ ही जिम्मेदार!

समाज में दहेज के व्यवसायीकरण का जिम्मेदार कौन?

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आकिल हुसैन  (aaquilhussain2013@gmail.com)

 

Voice4bihar desk. “बड़े गौर से सुन रहा था जमाना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते।” मोबाइल कैमरे के सामने हंसते मुस्कुराते दहेज की क्रूर गाथा सुनाते सुनाते वह खामोश हो गयी। मां-बाप ने रोकने की कोशिश तो की लेकिन शायद अब दहेज नामक दैंत्य उसे दबोचने के लिए तैयार खड़ा था। गुजरात के अहमदाबाद के वातवा में रहने वाली आयशा आरिफ खान नामक लड़की ने आखिरकार दिलों में दर्द लिए मगर हंसते हुए साबरमती नदी में छलांग लगा दी। उसकी खामोशी के बाद सोशल मीडिया के पंख पर सवार होकर फिजाओं में तैर रही उसकी दास्तां सबने सुनी। पुलिस कार्रवाई भी हुई, मगर सवाल वही कि क्या आयशा की मौत के लिए केवल एक शख्स जिम्मेवार है? क्या यह दास्तां सिर्फ एक ‘आयशा’ की है‌? जवाब मिलेगा-नहीं।

दशकों पहले दहेज दानव के चंगुल से बेटियों को छुड़ाने के लिए कानून तो बना, लेकिन आज भी हर शहर-गांव में न जाने कितनी ‘आयशा’ हर रोज इसके चंगुल में फंसकर दम तोड़ रही हैं। हमारे समाज में दहेज प्रथा का प्रचलन एक खतरनाक बीमारी की तरह अपनी चपेट में लेते जा रहा है। कहीं न कहीं उस बीमारी की चपेट में हम और आप भी आ गए हैं। अगर समय रहते दहेज प्रथा जैसी खतरनाक बीमारी को नही रोक पाएं, तो हमारा समाज बर्बाद हो जाएगा। तब उस बर्बादी का जिम्मेदार हम और आप होंगे।

कल यानि 8 मार्च को महिला दिवस है। जाहिर है कि महिला दिवस पर सामाजिक संगठन के साथ-साथ लोग महिलाओं के उत्थान एवं उनकी सुरक्षा प्रति बड़ी-बड़ी बाते करेंगे। महिलाओं के उत्थान एवं उनकी सुरक्षा की याद फिर एक वर्ष बाद महिला दिवस पर आयेगी। लेकिन इस दिन भी कहीं न कहीं कोई आयशा, काजल या सुनीता दहेज की बलिबेदी पर कुर्बान हो रही होगी।

वैसे हमने यहां चर्चा दहेज प्रथा की शुरू की है, इसमें एक अहम बात यह है कि इस बीमारी से देश का कोई भी समाज अब अछूता नहीं रहा। दहेज प्रथा का प्रचलन हमारे बहुसंख्यक समाज में ज्यादा रहा है। यही कारण रहा है कि दहेज को लेकर बहुसंख्यक समाज के शिक्षाविद व्यक्ति हमेशा इस्लाम धर्म की दोहाई देते रहे हैं। परंतु आज इस्लाम धर्म को मानने वाले भारत के अल्पसंख्यक समाज में भी दहेज का प्रचलन काफी बढ़ गया है। अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक समाज में तिलक प्रथा यानी दहेज को लेकर आपसी दरार के कारण हमारे समाज में कई शादीशुदा लड़कियों की जिन्दगी बर्बाद हो गयी है। तथा कई ऐसी लड़कियां आज दहेज की व्यवस्था नही होने के कारण उनकी शादी समय पर नहीं हो पा रहा है। जिसका जिम्मेदार हमारा समाज है!

अगर ऐसा नही है, तो राजस्थान की मूल निवासी व गुजरात के अहमदाबाद के वातवा में रहने वाली आयशा आरिफ खान नामक लड़की साबरमती नदी में हंसते हुए दिलों में दर्द लिए आत्महत्या नही करती! आत्म हत्या का वीडियो सोशल मीडिया खूब वायरल हो रहा है। इसे देख-देखकर हर कोई दहेज को लेकर तरह-तरह की बातें जरूर कर रहा है, लेकिन जल्द ही इसे भुला दिया जाएगा। आगे भी ऐसी आयशा बंद कमरे में दम तोड़ती नजर आएगी।

खैर, आयशा सुसाइड केस में अहमदाबाद पुलिस ने उनके पति राजस्थान के जालौर जिला निवासी आरिफ खान को गिरफ्तार जरूर कर लिया है परंतु सिर्फ आरिफ खान की गिरफ्तारी से दहेज जैसी प्रथा समाज से समाप्त होने वाला नहीं है, बल्कि दहेज प्रथा के खिलाफ पूरे समाज को आगे आने की जरूरत है। रही बात आयशा आरिफ खान की, तो उसने दुनिया को अलविदा जरूर कह दिया है, परंतु उसने मरने से पहले जो विडियो वायरल किया है। उस वीडियो ने अल्पसंख्यक समाज के साथ-साथ बहुसंख्यक समाज को आईना देखाने एवं सोंचने पर मजबूर कर दिया है।

दहेज की भेट चढ़ी आयशा आरिफ खान के पिता अहमदाबाद निवासी ने जिस बात का संदेश हम सारे भारतीय समाज को दिया है कि मेरी आयशा तो दुनिया से चली, मगर आप अपनी आयशा को न जाने दें। हमारा समाज हिन्दू-मुस्लिम से बाहर आए और अपने समाज की बेटियों को दहेज जैसी प्रथा से बचाने के लिए फिक्रमंद हों। ताकि दहेज जैसी प्रथा से देश की हजारों बेटियों की जिन्दगी तबाह व बर्बाद होने से बचाएं।

फौरी तौर पर आयशा की मौत का जिम्मेदार उनके पति आरिफ खान को माना जा रहा है, परंतू इसकी जड़ में जाएं तो पूरा समाज ही कठघरे में नजर आएगा। जिसने दहेज जैसी बुराई को समाज ने बढ़ने का मौका दिया। आज हमारा देश और समाज कोरोना जैसी खतरनाक बीमारी से लड़ रहा है। परंतु उस कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक बीमारी वर्षो से हमारे समाज में पल रही दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए जागरूक क्यों नहीं हुए! जो हमारे समाज की रौनक बेटियों की जिन्दगी को तबाहों बर्बाद कर दिया है। उसका रास्ता निकालना अब वक्त की जरूरत बन गई।

बहस का मुद्दा रहा है दहेज का मसला

वैसे दहेज लेन-देन का मसला हर दौर में बहस का मुद्दा बना रहा है। विशेष रूप से मुस्लिम समाज में इस पर हमेशा दो प्रकार की राय आती रही हैं। कतिपय लोगों का मानना है कि विवाह के बाद आमतौर पर नवविवाहित जोड़ों को घर बसाने के लिए मकान वर पक्ष की ओर से मिलता है, इसलिए उन्हें गृहस्थी चलाने के लिए बर्तन वधू पक्ष की ओर से मिले तो कोई बुराई नहीं है। खासकर मुसलमानों में वधू को दहेज देने का एक और बड़ा कारण यह भी है। वास्तव में इस्लाम में पुत्री को पिता की सम्पत्ति में अधिकारी माना जाता है।

यह अधिकार पुत्र से कुछ कम होता है। परंतु आमतौर पर मुस्लिम लड़की विवाह से पूर्व या पश्चातपिता की सम्पत्ति में अपने भाइयों से हिस्सा बांटने नहीं आती। पुत्री द्वारा हिस्सा मांगने की मिसालें अत्यन्त सीमित संख्या में बड़े जमींदार परिवारों में ही देखने में आती हैं। छोटे लोगों की बेटियों की सोच इस मामले में दूसरी है। सम्पत्ति में अपने हिस्से की कुर्बानी देकर बहन अपने भाइयों से मधुर रिश्ते बनाए रखती है। बदले में भाई भी आमतौर पर सदा उसके ऋणी बने रहते हैं तथा उसे दान-दहेज देने में कंजूसी नहीं करते।

क्या पैगंबर मोहम्मद साहब ने भी दिया था दहेज!

दहेज जैसी प्रथा की ख्वाहिश रखने वाले लोग उसे इस्लाम में जायज बताते हैं। तथा महेशा यह तर्क दिया जाता है कि पैगम्बर साहेब ने भी अपनी पुत्री फातिमा की शादी में दहेज दिया था। फिर भले ही उसकी मात्रा कम ही रही हो। जबकि हकीकत यह है कि पैगम्बर साहेब ने अपनी पुत्री फातिमा की शादी के अवसर पर गृहस्थी के लिए आवश्यक चन्द वस्तुएं दहेज स्वरूप तोहफे में दी थी। हदिस में कहीं भी उसे दहेज नाम से नहीं पुकारा गया है। बल्कि ज्यादा से ज्यादा आप उसे तौफा कह सकते हैं। दमाद हजरत अली खुद भी पैगम्बर साहेब की देख-रेख(कफालत) में थे। इसका मतलब यह है कि बेटी और दमाद दोनों ही पैगम्बर साहेब की जिम्मेदारी थे। इस लिए पैगम्बर साहेब ने कुछ जरूरत का सामान सहुलत के लिए दिया था, न कि वह दहेज की शक्ल में था।

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मुस्लिम समाज का यह मानना है कि पैगम्बर साहेब द्वारा ऐसा कोई भी कार्य किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता, जो इस्लाम के अनुकूल न हो। अगर मुस्लिम समाज पैगम्बर साहेब की तमाम बातों को मानते है, तो फिर दहेज स्वरूप तोहफे को हमने व्यवसायी क्यों बना दिया हैं? इसी तरह बहुसंख्यक समाज में भी शादी के मौके पर बेटियों की विदाई के समय वधूपक्ष के जरिए वर पक्ष को उपहार स्वरूप कुछ सामान घर बसाने के लिए जरूर दिए जाते रहे हैं। परंतू बहुसंख्यक समाज में भी तिलक यानी दहेज का व्यवसायीकरण कर दिया गया है। इसके लिए शादी से पहले ही बकायदा मोल-भाव भी होता है।

धार्मिक किताबों में जिक्र नहीं तो फिर कहां से आया दहेज?

अगर हम धर्मिक किताबों की बात करें तो अल्पसंख्यक समाज में कुरान एवं बहुसंख्यक समाज में गीता सबसे बड़ी धर्मिक पवित्र किताब मानी गयी है। उसमें कहीं पर भी दहेज यानी तिलक लेन और देन की चर्चा नहीं है। लेकिन हमारे समाज ने दहेज यानी तिलक लेने देने को व्यवसायीकारण इस तरह से बना दिया है कि आज हमारे समाज की बेटियां उससकी शिकार होने लगी है। अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक समाज के मौलवी एवं पंडित बड़े-बड़े धर्मिक समारोह में दहेज प्रथा के खिलाफ प्रवचन जरूर देते हैं। परंतु दहेज प्रथा जैसी बुराई से मौलवी एवं पंडित भी अछूते नहीं हैं। इसी तरह समाज में खुद को प्रतिष्ठित बताने वाले व्यक्ति भी दहेज लेने और देने में आगे देखे जाते हैं।

जैसा कि ऊपर बताया गया है गृहस्थी जमाने के लिए चार बर्तन पुत्री को देने में बुराई नहीं है। परंतू यह देखने वाली बात है कि वे बर्तन हैं कैसे? आज आम निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार अपनी लड़की को शादी में 30 से 50 हजार रुपये तक कीमत के तांबे व पीतल के ऐसे बर्तन देता है, जो शायद ही कभी इस्तेमाल होते हों। खास बात यह है कि रोजमर्रा के इस्तेमाल के लिए स्टील,अल्युमिनियम, कांच और जहां तक संभव हो सके, चीनी मिट्टी के बर्तन अलग से दिए जाते हैं। मुस्लिम समाज में दहेज के बढ़ते चलन का यह एक उदाहरण भर है। इसके अलावा आभूषणों-कपड़ों के साथ फ्रिज, टीवी, फर्नीचर, बाईक या फिर कार आदि वस्तुएं भी बतौर दहेज दी जाती हैं।

अर्थ सम्पन्न लोग दहेज में फ्लैट, प्लॉट या फैक्ट्रियां तक देते हैं। इसके साथ-साथ बारात की उम्दा आवभगत व खानपान पर जो खर्च किया जाता है, वह अलग है। बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के साथ अपने संबंधों के चलते यदि वरपक्ष शाकाहारी लोगों को भी बारात में लाए तो खाने का दोहरा प्रबंध करना वधूपक्ष की जिम्मेदारी होती है। परंतु इस पूरे मामले का जो सकारात्मक पक्ष नजर आता है, वह यही है कि अभी इन सारी चीजों की वर पक्ष की ओर से खुल कर मांग नहीं की जाती। अलबत्ता वह दहेज के लिए आशान्वित व लालायित जरूत रहता है।

वह विवाह पूर्व दहेज की कोई मांग नहीं करसकता,कोई शर्त नहीं रख सकता। दहेज के तौर पर उसे वही स्वीकार करना पड़ता है जो वधू पक्ष दे दे। इसके तीन कारण हैं। एक, दहेज व बारात की आवभगत के मामले में वधूपक्ष अपनी हैसियत के मुताबिक स्वयं ही कोई कसर नहीं छोड़ता। दो,मुस्लिम समाज में विवाह सम्बंधी मामलों में वधू पक्ष को वरीयता प्राप्त होती है। इस समाज में लड़की का रिश्ता तब तक निर्धारित नहीं किया जाता, जब तक वर पक्ष बाकायदा रिश्ते की मांग न करे। तीसरा कारण यह है कि धार्मिक वर्जना न होने के कारण मुसलमानों में शादी-ब्याह बहुत निकट के रिश्तों में तय हो जाते हैं। यहां लड़की की शादी उसके ताया, चाचा, मामा या फूफा के पुत्र के साथ कर दी जाती है। अब इतनी निकट की रिश्तेदारियों में दहेज की मांग करने का सवाल आमतौर पर नहीं उठता।

इस्लाम धर्म में दहेज प्रथा गैर इस्लामी माना गया है

वैसे इस्लाम धर्म में दहेज प्रथा गैर इस्लामी माना गया है। जिसकी तसदीक अब तो वर्ष 1972 में गठित ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी दहेज प्रथा को गैर इस्लामी करार दे दिया है। आयशा आरिफ खान के आत्महत्या की घटना के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव हजरत मौलाना मो वली रहमानी ने अफसोस का इजहार करते हुए कहा कि यह घटना पूरे समाज को शर्मसार करने देने वाली है। उन्होंने मुस्लिम समाज से कहा कि शरियत में दहेज लेना और देना दोनों हराम है। परंतु लोग इसकी पाबंदी नहीं करते हैं। मौलाना वली रहमानी ने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के द्वारा देष के अलग-अलग हिस्सों में दहेज प्रथा के खिलाफ अभियान चलने की बात कही है तथा कहा है कि दहेज प्रथा के खिलाफ अभियान जारी रहेगा।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की चिन्ता बेवजह नहीं

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की यह चिन्ता बेवजह नहीं है। चिन्ता का सर्वप्रमुख कारण यह है कि वधूपक्ष मात्र अपनी पुत्री की जरूरत पूर्ति या खुशी के लिए ही नहीं, समाज में अपनी धाक कायम करने के लिए और बिरादरी या अपनी बराबरी के लोगों के बीच अपनी नाक बचाने के लिए भी दहेज देते हैं। यही कारण है कि चाहे-अनचाहे तमाम उपभोक्ता वस्तुएं दहेज में शामिल हो गई हैं। इनमें से कई चीजों का सही इस्तेमाल तो मध्यवर्गीय परिवारों में भी आसानी से नहीं हो पाता। या तो वर पक्ष के घर में ये चीजें रखने के लिए जगह नहीं होती, यदि होती भी है तो ये चीजें पहले ही उसके पास मौजूद होती हैं। इसके बावजूद वधूपक्ष ये सारी चीजें दहेज में देते हैं। तथा ज्यादातर मामलों में कर्ज लेकर देता हैं। जबकि इस्लाम धर्म में कर्ज को हराम करार दिया गया है। गोया कि हम लोग मनमाने तौर पर जो दहेज लेते है, कहीं न कहीं वह हराम है।

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बहुसंख्यक समाज में दहेज दिया नहीं बल्कि लिया जाता है

दहेज का प्रचलन देश के बहुसंख्यक वर्ग में कटु सच्चाई बन चुका है। वहां दहेज अब दिया नहीं, बल्कि दबावपूर्वक लिया जाता है। ऐसा कहें कि दहेज वसूला जाता है। ज्यादातर मामलों में वहां वर की पैदाइश एवं परवरिश से लेकर पढ़ाई-लिखाई तथा नौकरी के लिए रिश्वत स्वरूप दी गई राशि तक वधूपक्ष से वसूली जाती है। वहां रिश्तों के तय होने में दहेज का मामला सर्वप्रमुख होता है। बहुसंख्यक जैसे हालात अल्पसंख्यक समाज में भी बढ़ गया। जो कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के साथ-साथ मुस्लिम समाज के हर मसलक के उल्मा की चिंता काफी बढ़ा दी है। अब तो मुस्लिम समाज की ओर से उल्माओं पर दबाब बनाया जाने लगा है कि दहेज लेन-देन वाली शादी के निकाह का बहिष्कार करें। परंतू सवाल शादी के निकाह के बहिष्कार से मसला का हल नहीं है। बल्कि समाज में फैले दहेज प्रथा की बीमारी को समाप्त करने का है।

मसला सिर्फ मुसलमानों की सोच का नहीं है। बल्कि उन पर पड़ने वाले बहुसंख्यकों के प्रभाव का भी है। इन हालात के चलते यह कहना गलत नहीं है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मामले में पहल कदमी करके एक सार्थक कदम उठाया है। परंतु ध्यान रखने वाली बात यह है कि इस घोषणा से दहेज की समस्या का समाधान निकलने वाला नहीं है। असल हकीकत यह है कि समस्याओं से बिना किसी जन आन्दोलन के नहीं निबटा जा सकता।

इस लिए प्रश्न यह है कि क्या ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या फिर अन्य मसलक के उल्माओं के साथ-साथ हिन्दु धर्मगुरू को ऐसे किसी जन आन्दोलन का सहयोग लेना पसंद करेंगे? जिसे दहेज जैसी प्रथा को समाज से उखाड़ फेका जा सके! तथा घर की जिनत या पवित्र कहलाने वाली बेटियों के लिए दहेज हटाओ और बेटी बचाओ का नारा बनकर समाज से एक बड़ा जन आन्दोलन का आगाज हो। ताकि समाज से दहेज प्रथा समाप्त किया जा सके। अब देखना है कि दहेज प्रथा जैसे खतरनाक बीमारी के खिलाफ समाज अपने स्तर से कब आवाज बुलंद करता है।

 (ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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