काश! आज जेपी जिंदा होते…, किसान आज सड़कों पर असहाय नहीं होते
किसान आंदोलन विफल हुआ तो देश में फिर नहीं होगा कोई आंदोलन
लेखक : मो आकिल हुसैन (aaquilhussain2013@gmail.com)
जब देश 1947 में आजाद हुआ था, तब देश वासियों ने कभी नही सोंचा होगा कि आजाद भारत के किसानों को अपने अधिकार के लिए देशी सरकार से लड़ना पड़ेगा तथा देशी सरकार अपने किसानों के साथ अंग्रेज शासक जैसा सलूक करेगी। अपने अधिकारों के लिए देश के किसान दो महीनों से देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर कड़ाके की ठंड में लोकतांत्रिक तरीके से आन्दोलन कर रहे हैं। आज आलम यह है कि सरकार उन किसानों के साथ ऐसा सलूक कर रही है कि जैसे आन्दोलनकारी किसान दूसरे देश से आए हों।
किसानों के साथ यह कैसा व्यवहार!
आन्दोलन कर रहे किसानों के साथ सरकार का व्यवहार ऐसा है कि जैसे किसान देश के दुश्मन हैं। अगर ऐसा नहीं है तो फिर सरकार किसानों के आन्दोलन को कमजोर करने की साजिश बार-बार क्यों करती? तथा आन्दोलनकारी किसान देश की राजधानी में दाखिल नहीं हो सकें, इसके लिए सरकार के आदेश पर दिल्ली पुलिस राजधानी की सीमाओं को सील नहीं करती।
उसी तरह कृषि कानूनों के खिलाफ दो महीनों से आन्दोलन कर रहे किसानों के धरने में लोगों की संख्या नहीं बढ़े, इस मकसद से गाजीपुर बॉर्डर पर सुरक्षा व्यवस्था कड़ी नहीं की जाती। हालात यह कि बैरिकेडिंग को वैल्डिंग कर जोड़ दिया गया है। किसानों के धरनास्थल की तरफ आने-जाने के रास्ते पूरी तरह से ब्लॉक कर दिए गए हैं। पुलिस ने गाजीपुर सीमा पर पक्की बैरिकेडिंग कर दी है, उसके बाद से इस रूट के खुलने की संभावना भी पूरी तरह खत्म हो गई है।
बात आंदोलन की हो तो जेपी की चर्चा जरूरी
कृषि कानून लागू कराने के लिए जिस तरह से सरकार अड़ी है और किसानों पर जबरन तीनों कृषि कानून सौंना चाहती है। वह लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। ऐसे में लोकनायक जयप्रकाश नारायण, यानी जेपी की चर्चा नहीं करना बेमानी होगी। क्योंकि उन्होंने वर्ष 1974 में आन्दोलन का रास्ता अख्तियार कर मनमाने तरीके से चल रही इंदिरा सरकार को सोंचने पर मजबूर कर दिया था।
इंदिरा गांधी के शासन के दौरान देश महंगाई समेत अन्य मुद्दों को लेकर जूझ रहा था। लोगों के मन में इंदिरा की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार को लेकर गुस्सा था। उस समय जेपी ने सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। जेपी ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा और देश के बिगड़ते हालात के बारे में बताया। उसके बाद जेपी ने देश के अन्य सांसदों को भी पत्र लिखा तथा इंदिरा गांधी के कई फैसलों को लोकतांत्रिक खतरा बताया। जेपी के आन्दोलन से लोग जुड़ते गए और आन्दोलन तेज हो गया। बाद में जेपी आंदोलन की वजह से इंदिरा गांधी के हाथ से सत्ता की जमीन खिसकने लगी। तथा कांग्रेस की सरकार का कई राज्यों से पतन हो गया। बाद में इंदिरा गांधी के हाथ से भी सत्ता चली गयी।
फिर याद आ रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण
वर्ष 1977 में पहली बार देश में गैर कांग्रेसी सरकार वजूद में आयी। आज देश के जो हालात है, उससे लगता है कि जेपी जैसे आन्दोलन की देश को फिर आवश्यकता नजर आ रही है। लेकिन जेपी जैसे आन्दोलन का आगाज कौन करेगा! क्योंकि जेपी आन्दोलन की राजनीतिक उपज वाले नेता अपने सुख चैन की राजनीति की खातिर खामोशी अख्तियार कर लेना ही अकलमंदी समझ रहे हैं।

जेपी के उत्तराधिकारियों ने भी किया किसानों को निराश
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जेपी का मूल्यांकन उनके वारिसों के उत्तरावर्ती योगदान के साथ किया जाए, तो जेपी की वैचारिकी का हश्र घोर निराशा का अहसास ही कराता है। जिस सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक क्रांति के लिए जेपी ने आह्वान किया था, वह आज भारत में कहीं नजर नहीं आ रहा है। आज लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, हुकुमदेव यादव, सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद, मुलायम सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव, विजय गोयल, केसी त्यागी, प्रकाश सिंह बादल से लेकर उत्तर भारत एवं पश्चिमी भारत के सभी राज्यों में जेपी आंदोलन के नेताओं की 60 प्लस वाली पीढ़ी सक्रिय है। इनमें से अधिकतर केन्द्र एवं राज्यों की सरकारों में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे हैं।
व्यवस्था परिवर्तन की बजाय सत्ता परिवर्तन से ही संतुष्ट हो गए जेपी के चेले
सवाल यह उठता है कि देश की आम जनता के लिए जेपी जैसी शख्सियत ने कांग्रेस में अपनी असरदार हैसियत को छोड़कर समाजवाद एवं गांधीवाद का रास्ता चुना। उस जेपी के अनुयायियों ने देश के पुनर्निर्माण में क्या योगदान दिया है। नीतीश कुमार, लालू यादव एवं मुलायम सिंह के रूप में जेपी के चेले सिर्फ इस बात की गवाही देते हैं कि राजनीतिक क्रांति तो हुई, परंतु सिर्फ मुख्यमंत्री और दूसरे मंत्री पदों तक के लिए। जेपी और लोहिया का नारा लगाकर यूपी, बिहार, ओडिसा, गुजरात, कर्नाटक जैसे राज्यों के मुख्यमंत्री बने नेताओं ने भारत के अन्दर उस व्यवस्था परिवर्तन के लिए क्या किया है?जिसके लिए सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा और अपरिहार्यता को जेपी ने अपने त्याग और पुरुषार्थ से प्रतिपादित किया था।
ऐसे तो समाजवादी आंदोलन व गांधीवादी विचारों का हो जाएगा अंत!
हकीकत यह है कि भारत से समाजवाद का करीब-करीब अंत हो चुका है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर लगातार देश में लोकतंत्रिक व्यवस्था पर हमले नहीं होते। इन सबके बावजूद जेपी के चेले क्यों खामोश बने हुए हैं? हैरत की बात तो यह है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सभा एवं समारोह में लोकतंत्र की दुहाई देते हैं कि लोकतंत्र में जनता ही मालिक है। परंतु आज देश में उनकी सहयोगी पार्टी देश से लोकतंत्र पर अमादा है।
ऐसा लग रहा है कि केन्द्र की भाजपा सरकार सबसे पुराने लोतंत्रिक देश में अपने हक के लिए आन्दोलन का रास्ता अपनाने वालों को निशाना बना रही है। साथ ही देश को अतिवाद का एजेंडा सौंपना चाहती है। अगर ऐसा नहीं होता तो किसान आन्दोलन को बदनाम करके उसे समाप्त कराने की नाकाम कोशिश क्यों होती? इतना कुछ हो जाने के बाद भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित जेपी के अन्य चेले सत्ता के लालच में लोकतंत्र पर लगातार हो रहे हमले रोकने की बजाये खामोश व तमाशायी बने हुए हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मरहम लगाने की जगह दर्द बढ़ा दिया
दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रिक देश भारत में देश के प्रधानमंत्री से यह उम्मीद की जा रही थी कि किसानों से बातचीत कर आन्दोलन का रास्ता निकलेंगे। अक्सर कड़े व चौंकाने वाले फैसले लेने वाले पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से भी किसानों को निराशा ही मिली। उल्टे उन्हें आंदोलनजीवी कह कर मजाक का पात्र बनाया गया। अब सवाल उठता है कि अगर आज किसान आन्दोलन कमजोर हुआ और कृषि कानून किसान को जबरन सौंपते हुए आन्दोलन समाप्त कराने में केन्द्र सरकार कामयाब हो जाती है तो आने वाले समय में फिर कोई आंदोलन करने की सोचेगा भी नहीं।
आने वाली सरकारें भी मनमाने तरीके से नए-नए कानून बनाकर देश वासियों पर थोपती रहेगी। सरकार के मनमाने कानून का पालन करना लोगों की बेबसी हो जाएगी। आजाद भारत के लोकतंत्र की जीत उस समय होगी, जब केन्द्र सरकार किसानों पर मनमाने तरीके से सौंपे गए कृषि कानून को वापस ले लेती है। यह देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने के लिए भी जरूरी है।
चौधरी चरण सिंह सरीखे किसान से कुछ तो सीखें!
एक वह भी जमाना था,जब देश के एक प्रधानमंत्री, किसानों की समस्या को लेकर वर्ष 1979 में उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के उसराहार थाने में मैला कुर्ता धोती पहने पहुंचे तथा अपने बैल के चोरी की रिपोर्ट लिखाने की फरयाद पुलिस से की। परंतु थाने के दरोगा बाबू ने उन्हें वापस कर दिया। जैसे ही वह थाने से निकले लगे, तो एक दारोगा पीछे से बोला कि कुछ खर्चा पानी दें तो रिपोर्ट लिखी जाएगी। उस समय 35 रुपये देकर रिपोर्ट लिखना शुरू हुआ। रिपोर्ट लिखकर थाने के मुन्शी ने पूछा बाबा हत्ताक्षर करेंगे या अंगूठा लगाएंगे। उन्होंने हस्ताक्षर करने की बात ही। जिस पर थाने के मुन्शी ने दफ़्ती आगे बढ़ा दी। किसान ने पेन के साथ अंगूठे वाला पैड उठाया, तो थाने का मुन्शी हैरत में पड़ गया।
मुन्शी सोंच में था कि हस्ताक्षर करेगा, तो स्याही का पैड क्यों उठा रहा है, उस किसान ने हस्ताक्षर में नाम लिखा चौधरी चरण सिंह और मैले कुर्ते की जेब से मुहर निकाल कर कागज पर ठोंक दी, जिस पर लिखा था, प्रधानमंत्री भारत सरकार। ये देखकर पुरे थाने में हड़कंप पच गया। तथा पूरे थाने को सस्पेंड कर दिया गया। जबकि प्रधानमंत्री का काफ़िला थाने से कुछ दूरर खड़ा था, थाने से आते ही वे आगे निकल गए। क्योंकि चौधरी चरण सिंह एक किसान खानदान से तालुक रखते थे। उन्हें किसानों की समस्या की बहुत चिंता रहती थी। वे मानते थे कि किसान देश की रीढ़ है। यही कारण था कि वे हमेशा किसानों का सम्मान करते थे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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