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अब भी अधूरा है महात्मा ज्योतिबा फुले के सपनों का समाज

ज्योतिबा के सपनों को कुचलने पर आज भी आमादा है रुढ़िवादी तबका

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लेखक : गूंजा कुमारी (अधिवक्ता)

ज्योतिबा राव फुले अथवा महात्मा फुले का जीवन व कर्तव्य भारतीय इतिहास का वह सुनहरा पन्ना है, जिसे पलटने पर हर उस तबके को गर्व होता है, जिन्हें रुढ़िवाद के चंगुल से आजाद कर नए विचारों की ओर अग्रसर किया। समाज की जड़ मान्यताओं पर चोट करते हुए नारी शिक्षा की नींव रखने वाले ज्योतिबा फुले को याद कर रहीं हैं अधिवक्ता गूंजा कुमारी….

 

 

महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खोलने के लिए बनाया था देश का पहला विद्यालय

Voice4bihar Desk. समाज के दबे-कुचले व शोषित वर्ग की आवाज बनकर इनके उत्थान के लिए तत्कालीन समाज व शासन से भिड़ने की कूबत रखने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले की कल यानि 11 अप्रैल को जयंती है। एक सदी से भी अधिक वक्त गुजर गए लेकिन समाज में कुप्रथा, परंपरा व अंधश्रद्धा के खिलाफ लड़कर नारी शिक्षा व तार्किक विचारों का प्रचार करने की दृष्टि से कोई और इतिहास पुरुष इनके समकक्ष नजर नहीं आता। वर्तमान भारत में जब स्त्रियां किसी भी क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी करने को तैयार हैं, इसकी नींव महात्मा फुले ने ही रखी थी।

उन्होंने अपनी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले को स्वयं शिक्षा प्रदान की। साथ ही इनकी प्रेरणा से सावित्रीबाई फुले भारत की प्रथम महिला अध्यापिका बनीं। बाद में फुले के विचारों को समाज में व्यापक मान्यता तो मिली, लेकिन रुढ़िवादी तबके ने लगातार इनके मिशन को ठेस पहुंचाने की कोशिश की। आज भी समाज की दशा देखें तो महात्मा फुले का सपना अधूरा ही नजर आएगा।

ज्योतिबा ने देखा था जातिवाद का विभत्स रूप, आज भी नहीं मिटा यह कोढ़

ज्योतिबा फुले का आर्विभाव जिस युग में हुआ उस समय महाराष्ट्र समेत पूरे देश में जाति – प्रथा बड़े ही वीभत्स रूप में फैली हुई थी। स्त्रियों की शिक्षा को लेकर लोग उदासीन थे, या कहें तो इसे पाप की श्रेणी में रखा गया था। गलत परंपराओं व अंधभक्ति के मकड़जाल में फंसे समाज को नई दिशा देने के लिए ज्योतिबा फुले ने बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाए।

उन्होंने महाराष्ट्र में सर्वप्रथम महिला शिक्षा की पहल की, जिसमें इनकी पत्नी सावित्री बाई फुले व एक अन्य समाजसुधारक फातिमा शेख ने इनका साथ दिया। हालांकि इनका यह मिशन काफी कष्टप्रद रहा। महिलाओं में शिक्षा का अलख जगाने निकलीं इन शिक्षिकाओं पर न जाने कितनी बार कीचड़ व पत्थर फेंके गए। समाज के इस तिरस्कार के बावजूद नारी शिक्षा के प्रति समर्पित से वीरांगनाएं सचमुच नमन योग्य हैं।

इसके बाद फुले ने अछूतोद्धार का काम आरंभ किया था । इन प्रमुख सुधार आंदोलनों के अतिरिक्त हर क्षेत्र में छोटे – छोटे आंदोलन जारी थे, जिसने सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर लोगों को मनुवादी परतंत्रता से मुक्त किया था। लोगों में नए विचार, नए चिंतन की शुरुआत हुई, जो आजादी की लड़ाई में उनके संबल बने। उनके इसी समर्पण की वजह से सन 1888 में उन्हें ‘ महात्मा ‘ की उपाधि दी गयी।

नारी व दलित उत्थान के लिए किया था जीवन समर्पित

19वीं सदी में एक महान भारतीय समाज सुधारक, समाज प्रबोधक, विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक व क्रान्तिकारी शख्शियत के रुप में पटल पर उभरे महात्मा फुले का पूरा नाम ज्योतिबा राव फुले है। सितम्बर 1873 में इन्होंने अपने विचारों को समाज में परिलक्षित करने के मकसद से सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया। महिलाओं व दलितों के उत्थान के लिये पूरा जीवन होम कर दिया। बाल विवाह का विरोध, विधवा विवाह का समर्थन करने वाला महात्मा फुले कुप्रथा, अंधश्रद्धा के जाल से समाज को मुक्त करना चाहते थे।

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हर वर्ग को शिक्षा देने के समर्थक थे महात्मा फुले

वस्तुत: महात्मा फुले समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के प्रबल समथर्क थे। उन दिनों भारतीय समाज में प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन और भेदभाव का इन्होंने खुलकर विरोध किया। उनका मानना था कि इसी भेदभाव की वजह से समाज की अधिसंख्य आबादी व खासकर महिलाओं को शिक्षा से दूर किया गया है। 19वीं सदी में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। तब से इन्होंने स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने की ठान ली और इसे सफल कर दिखाया। उन्होंने कन्याओं के लिए भारत देश की पहली पाठशाला पुणे में बनाई। स्त्रियों की तत्कालीन दयनीय स्थिति से दुखी महात्मा फुले ने दृढ़ निश्चय किया कि वे समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाकर ही रहेंगे।

जीवन परिचय

महात्मा ज्योतिबा के अंदर उभरे परिवर्तनकारी विचार संभवतया इनके जीवन के अनुभवों से उपजे थे। फुले का जन्म 1827 ई. में पुणे में हुआ था, जबकि इनका मूल पैतृक गांव सतारा में था। एक वर्ष की अवस्था में ही इनकी मां का निधन हो गया। इनका लालन-पालन एक बायी ने किया। ज्योतिबा के पूर्वज लोग सतारा से पुणे आकर फूलों का कारोबार करते थे, इसलिए माली के काम में लगे ये लोग ‘फुले’ के नाम से जाने जाते थे। ज्योतिबा ने कुछ समय पहले तक मराठी में अध्ययन किया, बीच में पढाई छूट गई और बाद में 21 वर्ष की उम्र में अंग्रेजी की सातवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की। सावित्री बाई से इनका विवाह 1840 में हुआ।

शिक्षा का अलख जगाने निकले तो रुढ़िवादियों ने डाला अड़ंगा

दलित व स्‍त्रीशिक्षा के क्षेत्र में दोनों पति-पत्‍नी ने मिलकर काम किया वह एक कर्मठ और समाजसेवी की भावना रखने वाले व्यक्ति थे। उन्‍होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए बहुत काम किया, इसके साथ ही किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए फुले ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था।

अपनी पत्नी को खुद पढ़ाया और बना दिया देश की प्रथम शिक्षिका

लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री फुले को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरम्भ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिएज्योतिबा की संत-महत्माओं की जीवनियाँ पढ़ने में बड़ी रुचि थी। उन्हें ज्ञान हुआ कि जब भगवान के सामने सब नर-नारी समान हैं तो उनमें ऊँच-नीच का भेद क्यों होना चाहिए।

1848 में खोला था देश का पहला बालिका विद्यालय

स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। कुछ लोगों ने आरम्भ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया। इन मुश्किलों से हार नहीं मानते हुए दंपति ने शीघ्र ही बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। गरीबों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने ‘सत्यशोधक समाज’ बनाया। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गयी।

ब्राह्मण पुरोहित के बिना ही शुरू कराया विवाह संस्कार

पुरोहितवाद के कट्‌टर विरोधी महात्मा फुले ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरम्भ कराया तो समाज में जैसे भूचाल आ गया। हालांकि बाद में इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। अपने जीवन काल में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं-गुलामगिरी, तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसला का पखड़ा, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत. महात्मा ज्योतिबा व उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया। धर्म, समाज और परम्पराओं के सत्य को सामने लाने हेतु उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखी। आज उनकी जयंती पर नमन करते समय ज्योतिबा के मिशन को गहराई से समझने व इसे अमल में लाने की जरूरत है।

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