रालोसपा के जदयू में विलय से बिहार की राजनीति में क्या बदलने वाला है
पटना (voice4bihar desk)। रालोसपा के जदयू में विलय से विहार की राजनीति में क्या बदलने वाला है। यह सवाल आज राजनीतिक रूप से जागरूक बिहार के हर व्यक्ति की जुबान पर है। रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा का बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रविवार को बड़े ही गर्मजोशी से स्वागत किया। उन्हें फूलों का गुलदस्ता भेंट किया और गले भी लगाया। उपेंद्र कुशवाहा ने कई बार नीतीश को अपना बड़ा भाई और खुद को उनका छोटा भाई बताया।
दो दलों के एकाकार होने से क्या बदलेगा
उपेंद्र कुशवाहा आज उन पुरानी बातों को याद भी नहीं करना चाहते थे जब उन्होंने कहा था ‘ऐसा कोई सगा नहीं जिसे नीतीश ने ठगा नहीं’, या फिर जब एक निजी चैनल पर बातचीत में उपेंद्र कुशवाहा से जुड़ा प्रश्न पूछने पर नीतीश ने कहा ‘बातचीत को इतने नीचे स्तर पर नहीं ले जाइए’। कुशवाहा आज इन बातों को हमेशा के लिए भूल जाना चाहते थे। इन सब बातों की चर्चा के बाद भी यह सवाल अपनी जगह मौजूद ही है कि दो दलों के एकाकार होने से आखिर बिहार की राजनीति में क्या बदलने वाला है।
2000 में पहली बार जंदाहा से जीते कुशवाहा
नीतीश ने जब जनता दल से अलग होकर समता पार्टी का गठन किया था तब उपेंद्र कुशवाहा उनके साथ थे। 2000 में समता पार्टी की ही टिकट पर जंदाहा से विधायक भी बने। 2004 में नीतीश ने उन्हें विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी बनाया। पर 2005 में चुनाव हारने के बाद उपेंद्र कुशवाहा नीतीश को भला-बुरा कहते हुए पार्टी से अलग हो गये और रालेसपा का गठन किया। करीब 15 वर्षों बाद फिर दोनों का मिलन हुआ है।
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इसके पहले 2014 के चुनाव में एनडीए के घटक दल रालोसपा से लोकसभा पहुंचने और केंद्र में मंत्री बनने के बाद उपेंद्र कुशवाहा एक तरह से नीतीश कुमार से प्रतिद्वंद्विता में लगे हुए थे। उन्होंने कई बार सार्वजनिक रूप से कहा भी कि नीतीश को अब उन्हें सत्ता सौंपकर काम करने का मौका देने चाहिए। यानी वे चाहते थे कि नीतीश राजनीति से संन्यास लें और उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित करें। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। सवाल है कि अब ऐसा क्या हुआ कि उपेंद्र कुशवाहा यह कहते हुए कि नीतीश कुमार उन्हें जो जिम्मेदारी देंगे उसे पूरा करेंगे, उनकी शरण में आ गये।
बिहार की राजनीति में जो नीतीश को करीब से जानते हैं उन्हें पता है कि नीतीश कभी किसी को माफ नहीं करते हैं। राजनीतिक अनबन होने के बाद कुशवाहा भी तभी नीतीश के साथ हो सके जब वे अपनी हर शर्त छोड़कर उनके पास पहुंचे। नवंबर में विधानसभा चुनावों के परिणाम में अपनी हालत देखने के बाद कुशवाहा तुरंत अपनी पार्टी को एनडीए का हिस्सा बनाना चाहते थे पर नीतीश ने पार्टी के विलय की अपनी शर्त पर ही उन्हें अंगीकार किया।
नीतीश अपने राजनीतिक विरोधियों से किस तरह निपटते हैं इसका ताजा उदाहरण चिराग पासवान हैं। पासवान लाख कोशिशों के बावजूद चुनाव के पूर्व नीतीश से मुलाकात तक नहीं कर सके और चुनाव के बाद वे कहीं के नहीं रहे। न घर के रहे न घाट के। उनके पिता रामविलास पासवान की सीट पर आज भाजपा के सुशील कुमार मोदी राज्यसभा सांसद हैं। लोकसभा चुनाव के बाद लोजपा को जो एक सीट मंत्रिपरिषद में मिली थी वह भी हाथ से जाती रही।
माना जा रहा है अब जब नीतीश 2020 के विधानसभा चुनाव को अपना आखिरी चुनाव बता चुके हैं तो अपने उत्तराधिकारी की तलाश में उनकी निगाह उपेंद्र कुशवाहा पा जा टिकी है। 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी आरसीपी सिंह को सौंप चुके हैं पर मुख्यमंत्री के रूप में वे अपनी विरासत उपेंद्र कुशवाहा को सौंपना चाहते हैं।
यही कारण है कि उपेंद्र कुशवाहा के जदयू में शामिल होते ही नीतीश ने उन्हें पार्टी के संसदीय बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष जैसी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। हालांकि नीतीश के लिए कुशवाहा को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपना उतना आसान भी नहीं होगा। कहा जा रहा है कि जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी की इच्छा के विरुद्ध नीतीश उपेंद्र कुशवाहा को दल में लेकर आये हैं। पर, अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने के लिए, सीधे शब्दों में कहें तो मुख्यमंत्री का पद सौंपने के लिए उन्हें इस पर भाजपा की सहमति लेनी होगी। और, भाजपा इसके लिए तैयार होगी इसमें संदेह है। ऐसी परिस्थिति में भाजपा अपना मुख्यमंत्री बैठाना चाहेगी।
जदयू के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि विधानसभा चुनाव 2020 में बुरी गत होने के बाद लव कुश समीकरण को साधने के लिए नीतीश ने आरसीपी (लव) को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष और उमेश प्रसाद कुशवाहा (कुश) को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। इसके बावजूद दल का चेहरा कौन हो इस पर मंथन जारी रहा। नीतीश मानते हैं कि आरसीपी अच्छे संगठनकर्ता हो सकते हैं पर चुनाव जीतने लायक वोट नहीं ला सकते हैं। उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश अपने दल का चेहरा बनाने के लिए ही पार्टी में लेकर आये हैं। नीतीश ने कुशवाहा को संसदीय दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष जैसा महत्वपूर्ण पद देकर यह संकेत भी दिया है कि फिलहाल कुशवाहा ही पार्टी चलायेंगे और सही वक्त आने पर सरकार चलाने की जिम्मेदारी भी दी जायेगी।