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बेटे को मंत्री बनाए जाने के बाद हो रही आलोचनाओं से छलका उपेंद्र कुशवाहा का दर्द

नीतीश कैबिनेट में पंचायती राज मंत्री बनाए गए हैं दीपक प्रकाश

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पटना (voice4bihar news)। बेटे दीपक कुशवाहा को मंत्री बनाने के उपेंद्र कुशवाहा के निर्णय की लगातार आलोचना हो रही है। लोग सोशल पर लगातार उपेंद्र कुशवाहा के इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं। पूछ रहे हैं कि जब उन्हें परिवार के ही सदस्य को मंत्री बनाना था तो हाल ही में विधानसभा चुनाव में सासाराम से निर्वाचित पत्नी स्नेहलता कुशवाहा का नाम क्यों नहीं आगे किया। उन्होंने अपने उस बेटे को मंत्री पद पर क्यों बैठाया जो न तो विधायक अथवा विधान पार्षद हैं और ना ही राजनीति में सक्रिय हैं।

इसके जवाब में उपेंद्र कुशवाहा ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा है कि बड़े संघर्ष के बाद आप सभी के आशीर्वाद से पार्टी ने सांसद, विधायक सब बनाए। लोग जीते और निकल लिए। झोली खाली की खाली रही। शून्य पर पहुंच गए। पुनः ऐसी स्थिति न आए, सोचना ज़रूरी था।

उपेंद्र कुशवाहा ने यह लिखते हुए 2013 से लेकर 2020 तक के घटनाक्रमों की ओर इशारा किया है। उन्होंने लिखा है कि “मैं तमाम कारणों का सार्वजनिक विश्लेषण नहीं कर सकता”, पर voice4bihar news यहां 2013 से लेकर 2020 तक के घटनाक्रमों के बारे में अपने पाठकों को याद दिलाना चाहता है।

2013 में नीतीश NDA से जुदा हुए तो कुशवाहा ने दिया साथ 

2013 तक उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार के साथ JDU में थे। पर, 2013 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने और भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री का दावेदार बनाए जाने पर नीतीश कुमार ने NDA से अलग होने का मन बना लिया। कुशवाहा तब राज्यसभा के सदस्य थे। उन्होंने JDU को त्यागकर राष्ट्रीय लोक समता के नाम से अपनी पार्टी का गठन किया।

2014 के लोकसभा चुनाव में कुशवाहा की पार्टी NDA के बैनर तले भाजपा और लोक जनशक्ति पार्टी के साथ मैदान में उतरी। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले नीतीश कुमार NDA से अलग हो चुके थे। हालांकि इससे उनकी सरकार का पतन नहीं हुआ था। भाजपा को छोड़ बाकी दलों के सहयोग से उनकी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया और 2015 में निर्घारित समय पर ही बिहार विधानसभा के चुनाव हुए।

2014 के लोकसभा चुनाव में कुशवाहा सहित उनकी पार्टी के तीन सांसद जीते

इधर, 2014 के लोकसभा चुनाव में NDA को बिहार में 40 में से 31 सीटें मिलीं। स्ट्राइक रेट के मामले में उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी अव्वल रही। गठबंधन में उसके हिस्से में तीन सीटें आयीं और तीनों पर उसे जीत मिली। उपेंद्र कुशवाहा खुद काराकाट से जीते। RJD की कांति सिंह को उन्होंने 1,05,241 मतों से हराया।

उनके बाकी दोनों उम्मीदवार सीतामढ़ी से रामकुमार शर्मा और जहानाबाद से डॉ. अरुण कुमार भी जीते। रामकुमार शर्मा ने RJD के सीताराम यादव को 1,47,965 मतों से जबकि डॉ. अरुण कुमार ने RJD के सुरेंद्र प्रसाद यादव को 42,340 मतों से शिकस्त दी। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मानव संसाधन राज्य मंत्री बने।

अगले साल 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव हुए। इस चुनाव में फिर NDA के बैनर तले BJP के साथ उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और रामविलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी UPA में शामिल RJD, JDU, कांग्रेस और वामपंथियों के खिलाफ लड़ी।

2015 के विधानसभा चुनाव में  23 सीटों पर लड़कर दो जिताए

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इस चुनाव में NDA का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में 23 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए पर जीते सिर्फ दो। यानी उसके 21 उम्मीवार चुनाव हार गए। जीतने वालों में मधुबनी के हरलाखी से बसंत कुमार और रोहतास के चेनारी से ललन पासवान शामिल हैं। बसंत कुमार ने कांग्रेस के शब्बीर को 3,892 और ललन पासवान ने कांग्रेस के मंगल राम को 9,781 मतों से हराया। नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में UPA की सरकार बनी।

तीन सांसद और दो विधायकों के सहारे उपेंद्र कुशवाहा की राजनीतिक गाड़ी पटरी पर सरपट दौर रही थी। वे खुद केंद्र में मंत्री थे ही। पर, परेशानी 2017 में शुरू हुई जब नीतीश कुमार का महागठबंधन से मोह भंग हुआ। जुलाई 2017 में नीतीश कुमार फिर NDA में शामिल हुए और मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बरकरार रखी।

2019 का बिहार विधानसभा चुनाव आते-आते NDA से अलग हो गए कुशवाहा

नीतीश के NDA में आने से उपेंद्र कुशवाहा असहज महसूस करने लगे और 2019 का बिहार विधानसभा चुनाव आते-आते वे NDA से अलग हो गए। ऐसे में सबसे बड़ा झटका उनकी अपनी पार्टी के दोनों सांसदों और विधायकों ने उन्हें दिया। सभी एक-एक कर उनसे दूर होते गए और चुनाव आते-आते जैसा कि उन्होंने कहा है कि मेरी झोली खाली की खाली ही रह गयी, तो सचमुच में उनकी झोली खाली रह गयी।

2019-20 के चुनाव में उनकी पार्टी का ना कोई विधायक चुना गया ना ही सांसद

2019 के बिहार विधानसभा चुनाव और 2020 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी का ना कोई विधायक चुना गया और ना ही सांसद। हालांकि उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और फिर से शुन्य से शुरुआत की। दोबारा राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का जदयू में विलय किया। हालांकि कुछ ही दिनों बाद फिर से नीतीश से मतभेद के कारण अलग होकर एक और नयी पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा का गठन किया।

हाल का विधानसभा चुनाव उन्होंने राष्ट्रीय लोक मार्चा के बैनर तले ही लड़ा और चार विधायक जिताए। इन विधायकों में उनकी पत्नी स्नेहलता वर्मा भी हैं जिन्होंने सासाराम से जीत हासिल की है।

बेटे दीपक प्रकाश को मंत्री बनाने के बाद हो रही आलोचनाओं का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि स्वस्थ आलोचनाओं का मैं हृदय से सम्मान करता हूं। ऐसी आलोचनाएं हमें बहुत कुछ सिखाती हैं, संभालती हैं। क्योंकि ऐसे आलोचकों का मकसद पवित्र होता है। दूषित आलोचनाएं सिर्फ आलोचकों की नियत का चित्रण करती हैं। परिवारवाद के आरोप का जवाब देते हुए उन्होंने लिखा कि जरा समझिए मेरी विवशता को। पार्टी के अस्तित्व व भविष्य को बचाने व बनाए रखने के लिए मेरा यह कदम जरूरी ही नहीं अपरिहार्य था।

खुद के स्टेप से शून्य तक पहुंचने का विकल्प खोलना उचित नहीं

उन्होंने लिखा कि भविष्य में जनता का आशीर्वाद कितना मिलेगा, मालूम नहीं। परन्तु खुद के स्टेप से शून्य तक पहुंचने का विकल्प खोलना उचित नहीं था। इतिहास की घटनाओं से यही मैंने सबक ली है। पार्टी को बनाए/बचाए रखने की जिद्द को मैंने प्राथमिकता दी। अपनी लोकप्रियता को कई बार जोखिम में डाले बिना कड़ा/बड़ा निर्णय लेना संभव नहीं होता। आलोचकों को पूर्वाग्रह से ग्रसित बताते हुए उन्होंने लिखा “सवाल ज़हर का नहीं था, वो तो मैं पी गया। तकलीफ़ उन्हें (आलोचकों को) तो बस इस बात से है कि मैं फिर से जी गया।।”

बेटे दीपक प्रकाश का बचाव करते हुए उन्होंने लिखा वह विद्यालय की कक्षा में फेल विद्यार्थी नहीं है। मेहनत से पढ़ाई करके कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग की डिग्री ली है, पूर्वजों से संस्कार पाया है। इंतजार कीजिए, थोड़ा वक्त दीजिए उसे, अपने को साबित करने का। आपकी उम्मीदों और भरोसा पर खरा उतरेगा। वैसे भी किसी भी व्यक्ति की पात्रता का मूल्यांकन उसकी जाति या उसके परिवार से नहीं, उसकी काबिलियत और योग्यता से होना चाहिए।

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