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सम्राट अशोक की महानता से किसे हो रही जलन?

विवादित नाटक "सम्राट अशोक" को पुरस्कृत करने के पीछे केंद्र सरकार की क्या है मंशा!

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भारत के महानतम सम्राट अशोक को अपमानित करने के लिए लिखी गई पुस्तक को मिला साहित्य एकेडमी

भाजपा नेता डीपी सिन्हा की पुस्तक ‘सम्राट अशोक’ का देशभर में हो रहा विरोध, बचाव में उतरी बीजेपी

लेखक : राजेश कुमार सिंह

27 सितम्बर 2019 को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ”हम उस देश के वासी हैं जिसने दुनिया को युद्ध नहीं बुद्ध दिया है। पूरी दुनिया को शांति का संदेश दिया है।” … तब हर भारतवासी को अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर गर्व महसूस हुआ। एक अन्य मौके पर पीएम ने खुद को “बुद्ध व गांधी की धरती” से जोड़ा था। वर्ष 2015 में दूरदर्शन ने ‘दिये जलते हैं’ नामक एक धारावाहिक तैयार किया था, जिसमें नरेंद्र मोदी को “मौर्य वंश” परंपरा का वाहक बताने की कोशिश की गयी थी। 8 अप्रैल 2017 को बिहार के तत्कालीन डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने पीएम नरेंद्र मोदी की तुलना चक्रवर्ती सम्राट अशोक से की थी।

इन तमाम अवसरों पर भारत की विराट धरोहर को सम्मानित करने के बावजूद दक्षिणपंथियों ने इन विरासतों पर लगातार हमले भी किये। दुनिया के महानतम शासक के रुप में प्रतिष्ठित हो चुके सम्राट अशोक और विश्वगुरु की ख्याति अर्जित करने वाले गौतम बुद्ध को नीचा दिखाने का कोई अवसर इन दक्षिणपंथियों ने नहीं छोड़ा है। अब सवाल उठता है कि जिस विरासत पर प्रधानमंत्री अपनी 56 इंच छाती का इजहार करते हैं, उन्हें नीचा दिखाने की जुर्रत आखिर कौन कर सकता है? इस हरकत से किसे फायदा पहुंचाया जा रहा है और दीर्घकालिन मंशा क्या है?

सम्राट अशोक को अपमानित करने की बार-बार कोशिश

पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्य में सम्राट अशोक को भारत की गुलामी का कारण बताने पर खूब थूकम-फजीहत हुई थी। इसके बाद भी कई मौकों पर संघियों ने ऐसा कुत्सित प्रयास नहीं छोड़ा। भारत का बुद्धिजीवी तबका इससे आहत तो हुआ लेकिन एक विचारधारा की “ओछी मानसिकता” मानकर तरजीह नहीं दी। नतीजा यह हुआ कि ऐसी ओछी हरकतों पर अब “सरकारी मुहर” भी लगने लगी है। जी हां, हम बात कर रहे हैं साहित्य अकादमी पुरस्कार-2021 से सम्मानित भाजपा नेता दया प्रकाश सिन्हा (DP Sinha) व उनका नाटक “सम्राट अशोक” की।

वैसे तो दया प्रकाश सिन्हा कई विधाओं व क्षेत्रों में दखल के लिए जाने जाते हैं, लेकिन वर्ष 2021 में हिन्दी भाषा श्रेणी में साहित्य एकेडमी का पुरस्कार झटकने या “मैनेज करने” के कारण खासे चर्चा में आए। प्रोमोटी आईएएस अफसर के तौर पर सेवा दे चुके डीपी सिन्हा वर्तमान में भाजपा कल्चरल सेल के राष्ट्रीय कन्वेनर हैं। उनके हिन्दी नाटक “सम्राट अशोक” को साहित्य एकेडमी पुरस्कार दिलाने में इस पद की क्या भूमिका रही है, यह जानकार की बता सकते हैं। क्योंकि हाल के दिनों में पद्म पुरस्कारों से लेकर साहित्य एकेडमी तक कई ऐसे चेहरों को तवज्जो मिली है, जो विवादों के घेरे में हैं।

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बहरहाल, “सम्राट अशोक” नाटक के कथ्य पर विचार करें तो इसका मकसद अशोक की कीर्ति को नीचा दिखाना ही है। यहां अशोक मौर्य को मुगल शासक औरंगजेब की तरह क्रूर बताया गया है। स्त्रियों के प्रति घृणित कार्य करने वाला अतिकामुक व निहायत कुरूप शख्सियत के रूप में पेश किया गया है। लेखक का दावा है कि उन्होंने कुछ तथ्य श्रीलंका में मौजूद प्राचीन किताबों (दीपावदान व अशोकावदान) से उठाये हैं, लेकिन साहित्य का बैचलर स्टूडेंट भी यह बात भलीभांति जानता है कि साहित्य में लेखक की कल्पना शामिल होती है। बिना कल्पनाशीनता के साहित्य की रचना नहीं हो सकती। जाहिर है एकाध तथ्यों के आधार पर कोरी कल्पना के आधार पर इस नाटक की रचना की गयी है। अर्थात एक काल्पनिक मिथक गढ़कर इसे इतिहास साबित करते का कुत्सित प्रयास किया गया है। दुखद पहलु यह है कि यह सब कुछ सरकारी संरक्षण में हो रहा है।

साहित्य अकादमी के इतिहास में पहली बार किसी “नाटक” को यह अवार्ड देने के पीछे की मानसिकता पर भी सवाल उठने लाजिमी हैं। आखिर अवार्ड चयन समिति को इस नाटक के कथ्य से इतना प्रेम क्यों हुआ? किन विचारों को पोषित करने के लिए यह अलंकरण प्रदान किया गया? अगर पीएम मोदी खुद को “सम्राट अशोक का उतरवर्ती” साबित करते हैं तो इस विरासत पर काला धब्बा लगाने की कोशिश क्यों हो रही है? एक कैंपेन की तरह “भारत को फिर से विश्वगुरु” बनाने का सपना दिखाने वालों को उस शख्सियत (सम्राट अशोक) से इतनी चिढ़ क्यों है, जिसने वास्तव में इस धरती को “विश्वगुरु” बनाकर दिखाया था।

असंगत विचारों को क्यों पोषित कर रही भारत सरकार?

दरअसल, भारत की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत को मिटाने व इसकी जड़ों पर प्रहार करने वाले वही लोग हैं, जिन्हें आईना दिखाने के लिए बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने मनुस्मृति का दहन करते हुए बौद्ध धर्म को अंगीकार किया था। लगभग शहस्त्राब्दी तक विसरित किया जा चुका भारत का गौरवशाली इतिहास 19वीं सदी में हमारे सामने आया तो हर भारतवासी को गर्व हुआ कि हम एक समृद्ध शासन परंपरा के वाहक हैं। अंग्रेजों के आगमन तक मगध साम्राज्य की विरासत से अनभिज्ञ भारतवर्ष के लोगों के सामने जब अंग्रेज विद्वानों ने गौरवशाली इतिहास को उजागर किया तो मनुवादियों को रास नहीं आया। आज पूरा विश्व जब इतिहास को सम्मान की नजर से देखता है तो भारत में ही इस इतिहास को नीचा दिखाने का “सरकारी प्रयास” फिर से तेज हो गया है।

देश भर में हो रहा विरोध, अवार्ड वापसी व पुस्तक बैन करने की मांग

सत्ता संरक्षित इस प्रयास का देश भर में विरोध हो रहा है। विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के अलावा बुद्धिजीवियों ने इसका पुरजोर विरोध किया है। बिहार में सत्ताधारी जदयू ने इसे अभियान के तौर पर लिया है। जदयू संसदीय बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने भाजपा को इस मुद्दे पर घेरा तो बिहार बीजेपी डैमेज कंट्रोल में जुट गयी है। इसके अलावा राष्ट्रीय कुशवाहा महासभा, महात्मा फुले समता परिषद, मौर्य शक्ति समेत तमाम संगठनों ने सड़कों पर उतर कर विरोध प्रदर्शन किया। डीपी सिन्हा से अवार्ड वापस लेने व पुस्तक को प्रतिबंधित करने पुरजोर मांग की जा रही है। बिहार की राजधानी पटना समेत कई जिलों में डीपी सिन्हा पर एफआईआर दर्ज की गयी है। अब देखना है कि इन विरोध प्रदर्शनों के मद्देनजर केंद्र सरकार अपनी भूल सुधार करती है अथवा नहीं।

( लेखक पटना के प्रतिष्ठित समाचार पत्र में वरिष्ठ पत्रकार हैं। आलेख में उनके निजी विचार हैं)

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