परिस्थितियों के प्रधानमंत्री बने शेर बहादुर देउवा, नेपाल में स्थिर सरकार बनाना बड़ी चुनौती
तीन विपरीत विचारों वाले गुटों के गठजोड़ का नेतृत्व करेंगे देउवा
विश्वास मत हासिल करने के दिन होगी गठबंधन की ताकत की परीक्षा
जोबनी बॉर्डर से राजेश कुमार शर्मा की रिपोर्ट
Voice4bihar news. भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री को “परिस्थितियों का पीएम” कहने पर खूब हाय-तौबा मचा था, लेकिन नेपाल में शुक्रवार को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे शेर बहादुर देउवा सही मायने में ‘परिस्थितियों के प्रधानमंत्री’ बन गए हैं। विगत चुनाव में नेपाली कांग्रेस को जनता ने 5 वर्षों तक प्रतिपक्ष में रहने का जनादेश दिया था, लेकिन परिस्थितियों ने शेर बहादुर को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा दिया। हालांकि हालात की बदौलत मिली इस कुर्सी पर काबिज रहना देउवा के लिए आसान नहीं होगी। कई चुनौतियां अभी से उनके सामने खड़ी दिख रही हैं।
सर्वथा विपरीत विचारों वाले कई खेमों को जोड़कर देउवा ने बनाया गठजोड़
दरअसल पीएम पद की शपथ लेने से पहले देउवा ने तीन ऐसे खेमों का गठजोड़ किया है, जो विचारधारा के लिहाज से सर्वथा विरोधी माने जाते हैं। इनमें एक खेमा है- प्रचंड के नेतृत्व वाला माओवादी खेमा तो दूसरा है उपेंद्र यादव का मधेश वादी खेमा और तिसरा नेकपा एमाले के ही अंदर के झलनाथ खनाल, माधव नेपाल समूह का खेमा। इसके अलावा अपनी ही पार्टी के अंदर के दो तीन खेमे। इन सभी गुटों का संयोजन करके इनका नेतृत्व करना आसान काम नहीं है।
विश्वास मत हासिल करते वक्त होगी कुशलता की परख
वर्षों पहले प्रधानमंत्री के पद पर आसीन शेर बहादुर देउवा जिस तरह रौब में दिखते थे, उसकी तुलना में आज शारीरिक रूप से सुस्त दिखाई देते हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में पहली चुनौती के रुप में विश्वास मत हासिल करते वक्त उनकी कुशलता की असली परख होगी। संविधान की धारा 76 (5) के अनुसार उन्हें एक महीने के अंदर विश्वास मत हासिल करना होगा। उस वक्त सबसे बड़ी चुनौती के रूप में एमाले के अंदर के झलनाथ-माधव नेपाल समूह सामने आ सकता है। क्योंकि शपथ ग्रहण से पहले ही माधव समूह ने इस गठबंधन में न रहने के संकेत दे दिये हैं।
फ्लोर टेस्ट में फेल हुए तो क्या करेंगे शेर बहादुर देउवा?
नेपाल में सरकार गठन से पहले ही इसकी स्थिरता को लेकर सियासी पंडितों में चर्चा होने लगी है। माना जा रहा है कि फ्लोर टेस्ट में विफल रहने पर शेर बहादुर देउवा के पास सिर्फ दो ही रास्ते बचेंगे। पहला यह कि इस्तीफा देकर किनारे हट जाएं, और दूसरा- संविधान की धारा 76 की उपधारा 5 के अनुसार फिर से जनादेश हासिल करने के लिए जनता के बीच जाएं।
कोरोना से निबटने के लिए वैक्सीन कहां से लाएंगे?
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नवनियुक्त प्रधानमंत्री के समक्ष सबसे बड़ी समस्या तो जनता की तरफ से है। इस समय जनता एक तरफ कोरोना से पीड़ित है तो दूसरी तरफ बेरोजगारी व भ्रष्टाचार अपने पंख फैला रहे हैं। अर्थव्यवस्था डांवाडोल है और सर्विस सेक्टर ध्वस्त हो रहा है। पिछली सरकार की अदूरदर्शिता के कारण अभी दुनिया के कई देश नेपाल से नाराज चल रहे हैं। कुछ देश दया व प्रेम के चलते थोड़ी बहुत कोरोना की वैक्सीन मुहैया करा रहे हैं, लेकिन यह जरूरतों के मुकाबले काफी कम है। वैक्सीन का इंतजाम करने में भी देउवा की कुटनीतिक समझदारी की परख होगी।
अपनी ही पार्टी के अंदर कलह को शांत करना होगी चुनौती
देउवा की पार्टी नेपाल कांग्रेस का महधिवेशन करीब साढ़े 5 वर्ष से नहीं हुआ है। इसे लेकर पार्टी के अंदर की आतंरिक समस्याओं को व्यवस्थित करने की भी चुनौती होगी। विश्वास का मत पाने पर भी देउवा के लिए सरकार का संचालन उतना आसान तो नहीं ही होगा। झलनाथ-माधव गुट व प्रचंड गुट को सत्ता में भागीदार रहने पर एमसीसी (maoist) के सम्बन्ध में वे क्या करेंगे?
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राजनीति में “असहमत रहने के लिए समझौता” करना आम बात
सभी विन्दुओं पर गौर करें तो शेर बहादुर देउवा की सरकार कमजोर दिखती है, फिर भी राजनीति में एक आजमाया हुआ शब्द “असहमत रहने के लिए समझौता” इस सरकार को संबल प्रदान कर सकती है। क्योंकि नेपाल में संसद भंग होने के बाद मामला संविधान पीठ में जाने पर दो बातें तो स्पष्ट हो गयी थी। संसद फिर से बहाल होगी और नई सरकार बनाने का अवसर मिलेगा।
नई सरकार के इंतजार में थे सभी, नेतृत्व करने की महत्वाकांक्षा पर फिरा पानी
इसके साथ ही वैकल्पिक सरकार के लिए 136 सीटों की जरुरत होगी, यह बात भी सबको मालूम थी। शेरबहादुर देउवा के अलावा गठबंधन में शामिल पुष्प कमल प्रचंड, झलनाथ खनाल, माधव नेपाल, उपेंद्र यादव और जनमोर्चा के नेता बखूबी जानते थे कि नई सरकार के लिए 136 मत एकत्रित करने होंगे। हालांकि नेतृत्व के सवाल पर सबकी अपनी महत्वाकांक्षा थी, जिस पर सर्वोच्च अदालत ने पानी फेर दिया।
नेपाल में स्थायी सरकार देना सभी गुटों का दायित्व
विशेषज्ञों का मानना है कि अपनी महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार करने हुए नेपाल में स्थिर सरकार देना सभी खेमों की जिम्मेवारी होगी। यह जिम्मेवारी अकेले शेरबहादुर देउवा पर नहीं थोपी जा सकती। अब इस समय अगर कोई गठबंधन से अलग होने की कोशिश कर रहा है तो वो संविधान तथा देश दोनों के लिए ही विचित्र की विडम्बना होगी।