शिबू सोरेन : जमींदारों के खिलाफ आंदोलन से दिसोम गुरु तक का सफर

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री का निधन, दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में ली आखिरी सांस

पटना (voice4bihar news)। दिसोम गुरू शिबू सोरेन नहीं रहे। 81 वर्ष की उम्र में उन्होंने चार अगस्त को दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में आखिरी सांस ली। शिबू साेरेन किडनी और दिल समेत अन्य बीमारियों से पीड़ित थे और पिछले करीब डेढ़ माह से सर गंगा राम अस्पताल में भर्ती थे। उनके निधन की सूचना उनके पुत्र और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया के जरिए लोगों को दी। उनके निधन से पूरा झारखंड शाेक में डूब गया है। झारखंड सरकार ने तीन दिनों के राजकीय शोक की घोषणा की है। इस दौरान पूरे राज्य में राजकीय समारोहों का आयोजन नहीं होगा। साथ ही चार और पांच अगस्त को झारखंड सरकार के सभी कार्यालय बंद रहेंगे।

राज्यसभा सांसद के रूप में शिबू सोरेन के निधन की सूचना उपसभापित हरिवंश ने सदन को दी। इस दौरान राज्यसभा ने दो मिनट का मौन रख कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। 2019 के लोकसभा चुनावों में दुमका निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के सुनील सोरेन से हारने के बाद शिबू सोरेन साल 2020 में राज्यसभा के सांसद निर्वाचित हुए थे। शिबू सोरेन 1980 से 1984, 1989 से 1998 और 2002 से 2019 तक झारखंड के दुमका लोकसभा क्षेत्र से सांसद रहे। उन्होंने 2004 में दो बार जबकि एक बार 2005 में भी केंद्रीय कोयला मंत्री के रूप में पद एवं गोपनियता की शपथ ली।

तीन बार शपथ ली पर कभी पांच माह से अधिक नहीं रहे मुख्यमंत्री

दिसोम गुरू शिबू सोरेन झारखंड राज्य के जनक थे। 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन के बाद से लेकर साल 2000 में झारखंड के गठन तक वे इसके लिए संघर्षरत रहे। हालांकि तमाम संघर्षों के बाद गठित झारखंड राज्य के पहले मुख्यमंत्री भाजपा के नेता बाबू लाल मरांडी बने। खास बात यह भी है कि 2005, 2008 और 2009 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और 10 दिन से लेकर पांच महीने के अंतराल में हर बार उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

शिबू सोरेन का जन्म तत्कालीन बिहार के हजारीबाग और वर्तमान के झारखंड राज्य के रामगढ़ जिले के गोला प्रखंड के नेमरा गांव में 11 जनवरी, 1944 को हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा अपने जिले में ही ली। 1957 में उनके पिता की हत्या कर दी गयी। बताते हैं कि उस समय इलाके में सूदखोर महाजनों का बोलबाला था। महाजन किसानों को फसल की बुवाई के समय रुपये देते थे और फसल की कटाई के समय डेढ़ गुना वापस लेते थे। फसल खराब होने या किसी अन्य कारण से जब किसान रुपये नहीं लौटा पाते थे तो महाजन उक्त किसान की जमीन अपने कब्जे में ले लेते थे। शिबू सोरेन के पिता इसका विरोध करते थे। माना जाता है कि इसी कारण किसी महाजन ने उनकी हत्या करवा दी। आगे चलकर शिबू सोरेन ने पढ़ाई छोड़ कर महाजनों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। उन्होंने 18 साल की उम्र में संथालों को संगठित किया जो महाजनों की जमीन पर लगी फसल काट कर ले आते थे। इस दौरान संगठन की महिला सदस्य फसलों की कटाई करती थीं और पुरुष सदस्य तीर कमान लेकर उनकी सुरक्षा करते थे।

1971 में बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी को मिली सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया। हालांकि उनका उद्देश्य बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी की तरह अलग देश नहीं बल्कि जमींदारों द्वारा कब्जाई गयी जमीन संथालों को वापस दिलाना था। इसमें उन्हें ट्रेड यूनियन नेता एके राय और कुर्मी नेता विनोद बिहारी महताे का साथ मिला। शिबू सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा के महासचिव चुने गये। कहते हैं कि जमींदारों और सूदखोरों के खिलाफ वे अपनी अदालत भी लगाने लगे। इसी दौरान 1975 में उन पर गैर आदिवासियों को बाहरी घोषित कर राज्य से बेदखल करने की कोशिश करने का आरोप भी लगा। 23 जनवरी, 1975 काे इसी अभियान के दौरान चिरूडीह में हुई हिंसा में 11 लोगों की मौत हो गयी। मरने वालों में नौ मुस्लिम समुदाय के लोग थे। शिबू सोरेन 2008 में इस मुकदमे से बरी हो गये।

1969 में हार से शुरू हुआ चुनावी सफर

शिबू सोरेन का चुनावी सफर 1969 में शुरू हुआ। पहली बार वे रामगढ़ से सापीआई के टिकट पर विधानसभा चुनाव लडे़ लेकिन हार का मुंह देखना पड़ा। फिर आपातकाल के बाद 1977 में हुए पहली बार लोकसभा चुनाव में दुमका से खड़े हुए और दुबारा हार गये। उस वक्त चिरूडीह कांड में अपने खिलाफ जारी वारंट के चलते वे ठीक ढंग से चुनाव प्रचार भी नहीं कर सके थे। इसके बाद 1980 के चुनाव में दुमका से लोकसभा पहुंचे। बाद में 1989, 1991 और 1996 में भी लोकसभा के लिए चुने गए। 2002 में वे राज्यसभा के लिए चुने गए थे। लेकिन उसी वर्ष दुमका लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली जीत के बाद राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। 2004 में वे फिर से लोकसभा के लिए चुने गए। 2004 में लोकसभा चुनाव के बाद गठित मनमोहन सिंह सरकार में वह केंद्रीय कोयला मंत्री बने, लेकिन तीस साल पुराने चिरुडीह मामले में गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस मामले में करीब एक महीने तक जेल में रहने के बाद उन्हें जमानत मिली। 8 सितंबर को जमानत पर रिहा होने के बाद 27 नवंबर, 2004 को फिर से केंद्रीय कोयला मंत्री बने।

झारखंड के जनक के लिए सीट छोड़ने को तैयार नहीं हुए पार्टी के विधायक

फरवरी/मार्च 2005 का झारखंड विधानसभा चुनाव झामुमाे ने कांग्रेस और राजद के साथ मिलकर लड़ा। हालांकि इस चुनाव में इस गठबंधन को बहुमत नहीं मिला। फिर भी 2 मार्च, 2005 को उन्होंने झारखंड के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। लेकिन, विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने में विफल रहने पर 11 मार्च को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

अपनै पुत्र और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ शिबू सोरेन (फाइल फोटो)

27 अगस्त, 2008 को उन्होंने दूसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। हालांकि उस वक्त वे विधायक नहीं थे। उन्हें अगले छह महीने में विधानसभा का सदस्य बनना था। सदस्य बनने के लिए दिसोम गुरू शिबू सोरेन को एक अदद सुरक्षित सीट की जरूरत थी। लेकिन उनकी पार्टी झामुमो का कोई भी विधायक उनके लिए काेई ऐसी सीट छोड़ने को तैयार नहीं हुआ जहां से वे आसानी से चुनाव जीतकर विधानसभा जाते और मुख्यमंत्री का कार्यकाल पूरा करते। इसी बीच जदयू विधायक रमेश सिंह मुंडा के निधन से खाली हुई तमाड़ विधानसभा क्षेत्र में  जनवरी 2009 में उपचुनाव की घोषणा हुई। कांग्रेस, राजद और झामुमो ने उन्हें वहीं से चुनाव लड़ने को कहा। इसके बाद कुर्सी बचाए रखने के लिए शिबू सोरेन के पास पहली बार संथाल परगना से बाहर निकलकर छोटानागपुर से चुनाव लड़ने के अलावा और कोई उपाय नहीं था। शिबू सोरेन के खिलाफ झारखंड पार्टी के राजा पीटर मैदान में थे। 8 जनवरी, 2009 को आए परिणाम में शिबू सोरेन करीब नौ हजार वोट से उपचुनाव हार गए और 18 जनवरी, 2009 को उन्हें मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा।

कैश फॉर वोट और निजी सचिव की हत्या का भी लगा आरोप

शिबू सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा पर प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार बचाने के लिए करोड़ों रुपए लेने का आरोप भी लगा। जमशेदपुर से तत्कालीन झामुमो सांसद इस मामले के सरकारी बन गये। उन्होंने कहा कि नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने के लिए उन्हें भी 40 लाख रुपये मिले थे। इसमें से 20 हजार रुपये उन्होंने खर्च कर दिये थे। बाकी रकम उनके बैंक खाते में जमा थी जिसे सीबीआई ने जब्त कर लिया था। 1994 में दिल्ली की एक जिला अदालत ने शिबू सोरेन को अपने निजी सचिव शशि नाथ झा की हत्या में शामिल होने का दोषी ठहराया था।

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