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रालोसपा का जदयू में विलय, कुशवाहा संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष बने

मिलन समारोह से गैरहाजिर रहे आरसीपी

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पटना (voice4bihar desk)। रालोसपा का जदयू (जनता दल यूनाइटेड) में विलय हो गया है। रविवार को इसकी घोषणा रालोसपा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा ने मीडिया के समक्ष दो बार की। पहली बार रालोसपा दफ्तर में और दूसरी बार जदयू के दफ्तर में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने। खास बात रही कि इस बहुप्रतिक्षित मिलन समारोह में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह मौजूद नहीं रहे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मौके पर कुशवाहा को जदयू के संसदीय बोर्ड का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का ऐलान किया।

इस मौके पर कुशवाहा ने कहा कि वर्तनाम राजनितिक परिस्थिति को देखते हुए राज्य और देशहित में रालोसपा की राष्ट्रीय कार्यपरिषद की बैठक में फैसला किया गया है कि पार्टी का काफिला आगे जदयू के साथ चलेगा। उन्होंने कहा कि विगत विधानसभा चुनाव में जनादेश था मिलने के लिए इसलिए आज पार्टी का जदयू में विलय करने का फैसला किया गया। इस मौके पर जब कुशवाहा से पूछा गया कि जदयू में उनकी क्या भूमिका होगी तो उन्होंने कहा कि यह नीतीश कुमार तय करेंगे। वे जो भी जिम्मेदारी देंगे उसे वे निभायेंगे।

2000 में पहली बार जंदाहा से विधायक बने कुशवाहा

60 साल के उपेंद्र कुशवाहा राजनीति में आने से पहले वैशाली जिले के जंदाहा में समता कॉलेज में राजनीति शास्त्र के लेक्चरर थे। लोकदल से राजनीति में कदम रख्ने वाले कुशवाहा को 1985 में लोक दल का प्रदेश महासचिव और 1993 में राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। 1995 में समता पार्टी के टिकट पर जंदाहा से विधानसभा का चुनाव लड़े लेकिन बुरी तरह हार गए। 2000 में जंदाहा की जनता ने उन्हें विधानसभा भेजा। इसके बाद 2018 में एनडीए से अलग होने तक वे अब तक के राजनीतिक जीवन के शीर्ष पर रहे पर, 2018 में एनडीए से अलग होने के बाद से अब तक सबसे बुरे दौर से गुजरे।

2004 में जब सुशील मोदी भागलपुर से सांसद चुने गए तो नीतीश कुमार ने उपेंद्र कुशवाहा को विपक्ष का नेता बनाया। 2005 में दलसिंहसराय से चुनाव हार जाने के बाद उन्हें फिर मुख्यधारा से अलग होना पड़ा। 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने जबकि कुशवाहा जदयू से बाहर हो गये। 2008 में उन्होंने एनसीपी का दामन थामा पर वहां ज्यादा दिन टिक नहीं पाये और नीतीश कुमार से पाले में आ गये।

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नीतीश ने 2010 में उन्हें जदयू के टिकट से राज्यसभा भेज दिया। 2012 में उन्होंने एफडीआई बिल पर पार्टी से अलग लाइन ली जिसके कारण उन्हें आगे चलकर राज्यसभा की सदस्यता छोड़नी पड़ी। 2013 में उपेंद्र कुशवाहा ने अरुण कुमार के साथ मिलकर रालोसपा नाम की नई पार्टी का गठन किया। 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू एनडीए से अलग हो चुकी थी। यही मौका था और कुशवाहा की पार्टी रालोसपा एनडीए के साथ हो गयी।

2014 के लोकसभा चुनाव में रालोसपा तीन सीटों पर चुनाव लड़ी और तीनों जीत गयी। नरेंद्र मोदी की सरकार में वे केंद्र में राज्यमंत्री बनाए गए। 2015 के चुनाव में एनडीए में वे 23 सीटों पर चुनाव लड़े जिसमें से मात्र दो जीत सके। आगे चलकर उनके ये दोनों विधायक जदयू में शामिल हो गये।

2017 में नीतीश कुमार की एनडीए में सत्ता में वापसी हुई तो उपेंद्र कुशवाहा असहज हो गये। 2018 में उनकी पार्टी एनडीए से अलग हुई और उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद वे यूपीए में शामिल हो गये। लोकसभा चुनाव 2019 में यूपीए की बुरी गत हुई और बिहार में 40 में से एक केवल एक सीट यूपीए के घटक कांग्रेस के हाथ लगी। 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने उन्हें भाव नहीं दिया जिसके चलते उन्हें यूपीए भी त्यागना पड़ा।

नवंबर 2020 में विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद वे कम से कम चार बार मुख्यमंत्री से मिले तब जाकर आज जदयू से उनका मिलन हो पाया। बताते हैं कि शुरू में कुशवाहा अपनी पार्टी रालोसपा को एनडीए का घटक बनाना चाहते थे पर नीतीश रालोसपा का जदयू में विलय चाहते थे। इसी को लेकर करीब चार महीने हुई मंथन के बाद आज अंतत: रालोसपा का जदयू में विलय हो गया।

कुर्मी और कोईरी मतों के एकजुट होने का जदयू को होगा फायदा

बिहार में कुर्मी वोटर करीब चार फीसद है जबकि कुशवाहा वोटर 4.5 फीसद हैं। दोनों मिल जाने पर 8:5 फीसद हो जाते हैं। इसका सीधा लाभ बिहार में चुनाव में होगा। क्योंकि यहां चुनाव में जाति एक बड़ा फैक्टर होता है। ऐसे में दोनों मिल जाते हैं तो नीतीश कुमार और खासकर जदयू को इसका फायदा मिलेगा। साथ रहने का लाभ उपेंद्र कुशवाहा को मलना भी तय है।

 

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